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कविता

खुशी

दिविक रमेश


खुशी को मैंने
उंगलियों में पकड़ा
और सहलाया उसकी पंखुड़ियों को

पाया
खुशी शर्माते शर्माते
सकुचा गई थी

मैंने
थोड़ा खोला खुशी की पंखुड़ियों को

पाया
खुशी मेरी खुशी में
सम्मिलित हो गई थी

मैंने खोल दिया पूरा
और कर दिया अर्पित उसे
उस पूरी दुनिया पर
जहाँ नहीं थी वह

पाया
मैंने कभी नहीं देखा था खुशी को
इससे ज़्यादा खुश
पहले कभी

ताज्जुब
मेरी खुशी तक मना रही थी जश्न
जैसे मुक्त हो गई हो मेरी कैद से।

*दिल्ली में क्रूरतम बलात्कार की शिकार दामिनी के पक्ष में 21.12.2012 को उमड़े जन सैलाब को देखकर

 


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